उत्तराखंड डेली न्यूज़ :ब्योरो
जून -जुलाई में भारी बारिश शुरू होते ही उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ जाती हैं. उत्तराखंड में भूस्खलन के लिए क्या सिर्फ बारिश ही जिम्मेदार है या इसके पीछे वैज्ञानिक और मानवीय कारण भी हैं. आइए जानते हैं इसके पीछे की वजहों को…देहरादून : जून-जुलाई में बरसात शुरू होते ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन (Landslide) की घटनाएं लगातार बढ़ने लगती हैं. भारी बारिश से कहीं सड़कें टूट जाती हैं, तो कहीं पहाड़ दरक जाते हैं और कई बार तो जान-माल का भी भारी नुकसान होता है. हर साल मानसून के साथ यह डरावनी तस्वीर सामने आती हैं, लेकिन क्या इस तबाही के लिए सिर्फ बारिश ही जिम्मेदार है? या फिर इसके पीछे कुछ और भी गहरी और वैज्ञानिक वजहें हैं. सवाल अहम है, क्योंकि अगर सिर्फ बारिश को ही कारण मान लिया जाए, तो फिर दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में भारी बारिश के बावजूद भूस्खलन की घटनाएं कम क्यों होती हैं? आखिर क्यों उत्तराखंड और हिमालयी राज्यों में यह जोखिम इतना अधिक है?उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति इसे अन्य पहाड़ी राज्यों से अलग बनाती है. यह राज्य मुख्य रूप से हिमालय पर्वत श्रृंखला (Himalayan Mountains) में स्थित है, जो भूगर्भीय दृष्टि से बहुत ही युवा है. ये पर्वत अभी भी भूगर्भीय प्लेटों (Tectonic Plates Movement) की हलचल से बनते और बदलते जा रहे हैं।देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन के पूर्व भू-वैज्ञानिक डॉ. अजय पॉल ने बताया कि भारतीय और यूरेशियन टेक्टॉनिक प्लेटों के टकराव के कारण हिमालय क्षेत्र लगातार ऊपर उठ रहा है, जिससे चट्टानें कमजोर हो जाती हैं और पहाड़ अस्थिर हो जाते हैं. हिमालय की चट्टानें अक्सर अधपकी हुई (unconsolidated) होती हैं और भारी बारिश (Rainfall Landslides) में जल्दी ढह जाती हैं. यह अस्थिरता ही भूस्खलन की सबसे बड़ी वैज्ञानिक वजहों में से एक है।दक्षिण भारत के पहाड़ बेहद पुराने और स्थित
दूसरी ओर, दक्षिण भारत की नीलगिरि, पश्चिमी और पूर्वी घाट की पर्वतमालाएं भूगर्भीय रूप से बहुत पुरानी और स्थिर हैं. ये चट्टानें समय के साथ कठोर और मजबूत बन चुकी हैं. इस वजह से बारिश का उन पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उत्तर भारत के कमजोर और नए चट्टानों वाले क्षेत्रों पर पड़ता है. यही कारण है कि दक्षिण भारत में बारिश के बावजूद लैंडस्लाइड की घटनाएं अपेक्षाकृत कम होती हैं. दक्षिण भारत के पहाड़ों में ऐसा नहीं होता. इसके अलावा, हिमालयी पहाड़ में प्रायद्वीपीय भारत के पहाड़ों के मुकाबले ज्यादा ढलान (Gradient) हैं.
मानवीय हस्तक्षेप भी बन रहा है बड़ा कारण
उत्तराखंड में बढ़ती आबादी और पर्यटन के दबाव में लगातार सड़कें, सुरंगें, हाइड्रो प्रोजेक्ट और होटल बनाए जा रहे हैं. इससे प्राकृतिक ढलानों की स्थिरता टूटती जा रही है. पेड़ों की कटाई और पहाड़ों की खुदाई से मिट्टी कमजोर हो जाती है, जो बरसात के समय बहकर लैंडस्लाइड का कारण बनती है।पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से बिगड़े हालात
पहाड़ी क्षेत्रों में पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं, लेकिन वनों की अंधाधुंध कटाई ने इस प्राकृतिक रक्षा कवच को कमजोर कर दिया है. पेड़ों के बिना मिट्टी आसानी से बह जाती है और भूस्खलन को बढ़ावा देती है. दक्षिण भारत में मानवीय हस्तक्षेप की गति इतनी तीव्र नहीं है और वहां की संरचना पहले से ही अधिक संतुलित है. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन के पूर्व भू-वैज्ञानिक डॉ अजय पॉल बताते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में भी बदलाव आया है, जिसके कारण बारिश में भी तीव्रता देखी जा रही है, जो एक कारण बनता है.
दक्षिण भारत के राज्यों से लेना होगा सबक
उत्तराखंड में भूस्खलन सिर्फ मौसम का नहीं, बल्कि भूगर्भीय और मानवीय गतिविधियों का भी परिणाम है. जब तक पर्वतों के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने की दिशा में ठोस प्रयास नहीं किए जाएंगे, तब तक हर मानसून उत्तराखंड के लिए डर और विनाश की दस्तक ही लाता रहेगा. वहीं, दक्षिण भारत की भौगोलिक मजबूती इस दिशा में एक अहम सीख भी है कि प्रकृति को समझकर ही विकास की दिशा तय करनी चाहिए. अगर हमने अब भी प्रकृति के संकेतों को नजरअंदाज किया, तो भविष्य में यह भूस्खलन सिर्फ सड़कें नहीं, बल्कि पूरे समुदायों को निगल सकते हैं. इसलिए सतर्कता, विज्ञान आधारित नीति और प्रकृति के साथ तालमेल ही एकमात्र रास्ता है।
